किसी भी स्थान या आवास के पर्यावरण को निर्मित करने में वायुमंडल, जल और थल का तो महत्वपूर्ण योगदान होता ही है, किन्तु इनके साथ ही मानव की जीवन क्रियाओं को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाले सभी भौतिक तत्व एवं अन्य जीव भी इसमें सम्मिलित होते हैं, इन घटकों को सम्मिश्रण सभी स्थानों पर एक जैसा नहीं रहता तथा इनकी मात्रा और गुण में समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। इस बदलते हुए पर्यावरण का प्रभाव वहाँ के सभी जीवधारियों भौतिक व पदार्थों पर पड़ता है। जैविक एवं भौतिक पर्यावरण के सभी अंशों के उचित मात्रा में रहने से प्रकृति अपना कार्य संतुलित ढंग से करती है।
पिछले 50 वर्षों में औद्योगिक और तकनीकी प्रगति के कारण विश्व पर्यावरण में परिवर्तन तथा इसकी गुणवत्ता के गिर जाने से पर्यावरण असंतुलन की गम्भीर चिन्ता उभरकर सामने आयी है, विश्व पर्यावरण में परिवर्तन के अनेक जैव और अजैव कारक पाए जाते हैं, जिनमें परस्पर गहरा सम्बन्ध होता है। प्रत्येक जीव को जीवन क्रियाओं के लिए अजैव कारकों, जैसे वायु, जल, ऊर्जा एवं विभिन्न खनिज लवणों की एक समुचित मात्रा की आवश्यकता होती है, आज मानव समाज तकनीकी सभ्यता की समृद्धि के लिए इन कारकों का अधिकाधिक उपयोग कर रहा है, अतः विश्व व्यापी औद्योगिक दुर्नीति मानव समाज अस्तित्व एवं विश्व पर्यावरण के लिए खतरा बनती जा रही है। यह एक ओर स्थानीय लोगों के जीवन से शुद्ध पानी, पहाड़, जंगल, जमीन और जीने का मूल आधार छीन रही है, तो दूसरी ओर अविश्वास सन्देह और उग्र आक्रोश को उत्पन्न कर देश की आन्तरिक एकता को चुनौती दे रही है।
पर्यावरण पर विजय पाने की उतावली में आज की विज्ञान तकनीकी सभ्यता अपने सुख वैभव और ऐश्वर्य के वर्धन में उलझी हुई है और यह समझना ही नहीं चाहती कि मानव प्रकृति का ही प्राणी है। मानव प्रकृति पर नियंत्रण निरन्तर मजबूत होता जा रहा है। मानव के इस प्रयत्न ने प्रकृति का नाजुक संतुलन डगमगा दिया है। प्रकृति मानव की इस प्रकार की नकारात्मक गतिविधियों की ओर बार-बार चेतावनी दे रही है, फिर भी दिग्भ्रमित मानव यही समझा रहा है कि विकास का यह तरीका उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जाएगा।
मनुष्य तकनीकी सभ्यता की समृद्धि के लिए जिस तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और भौतिक साधनों का अधिकाधिक उपयोग कर रहा है, उसके फलस्वरूप अनेक स्थानों पर विश्व पर्यावरण में परिवर्तन हो गया है, मानव पर्यावरण के तेजी से बदलने के प्रमुख कारक हैं, 1. निरंतर और तीव्रगति से बढ़ती हुई जनसंख्या, 2. औद्योगीकरण, 3. प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन, 4. जल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण, 5. विश्व पर्यावरण में बढ़ती हुई रेडियोधर्मिता, 6. कृषि में नए-नए कीटनाशकों का अधिक उपयोग, 7. वन विनाश, 8. ग्लोबल वार्मिंग, 10. हरित गृह प्रभाव, 11. ओजोन परत का क्षरण।
मानव की निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या से जीव मण्डल की पारिस्थितिक व्यवस्था असन्तुलित होती जा रही है। विश्व पर्यावरण में परिवर्तन पारस्परिक अन्तर क्रिया द्वारा तीव्र गति से होते जा रहे हैं। मानव की निजी और सामाजिक आकांक्षाओं की प्राकृतिक संसाधनों द्वारा पूर्ति, जीव-मंडल के सर्वनाश का विनाशकारी कारक बन गयी है। मनुष्य को सर्वाधिक खतरा उसकी स्वयं की जाति से है। विश्व में जनसंख्या के विस्फोट ने आज उसे एक ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ से उसे सही मार्ग नहीं मिल पा रहा है।
जनसंख्या की वृद्धि एवं फैलाव और आर्थिक विकास के सन्दर्भ में मानव पर्यावरण के सुधार की समस्याओं का पता लगाने और उसका हल सुलझाने के लिए भारत सरकार ने 1972 में राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन एवं समन्वय समिति बनाई, जिसमें पर्यावरण व पारिस्थितिकी अनुसंधान को प्रोत्साहन, पर्यावरण पर प्रभाव के विचार से विकास परियोजनाओं का मूल्यांकन, विकास आयोजन में पर्यावरणीय सुरक्षा शामिल करने आदि पर बल दिया गया।
पर्यावरण सन्तुलन में प्राकृतिक और सामजिक संरचना ही निहित नहीं है बल्कि समानता की भावना और मानव का मानव से व्यवहार भी सम्बन्धित है। मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या, उसके परिणामस्वरूप बढ़ती हुई गतिविधियों और पर्यावरण में उत्पन्न परिवर्तन तथा औद्योगीकरण ने प्रदूषण की मात्रा में निरन्तर वृद्धि करके मनुष्य के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न कर दी है।