दक्षिण कोरिया के इंचियोन में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी कार्यदल (आईपीसीसी) की ‘1.5 डिग्री सेल्सियस’की वैश्विक तापवृद्धि पर रिपोर्ट 8 अक्टूबर, 2018 को प्रकाशित की गई। इसमें पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता के तहत वैश्विक तापवृद्धि को अधिकतम 2.0 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने तथा 1.5 डिग्री सेल्सियस तक इसे सीमित रखने के लिए विशेष प्रयास करने की चेतावनी दी गई है।
विश्व के 40 देशों के 91 लेखकों एवं समीक्षा संपादकों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा दर से कार्बन उत्सर्जन जारी रहने पर 1.5 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापवृद्धि सीमा 2030 से 2052 के बीच ही पार हो जाएगी। पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में अभी विश्व 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है।
हालांकि आईपीसीसी ने कहा है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की तापवृद्धि के भयानक परिणाम हो सकते हैं फिर भी 2 डिग्री सेल्सियस की विध्वंसक तापवृद्धि की तुलना में यह मनुष्यों, अन्य प्रजातियों व पृथ्वी के लिए सहनीय है। इस रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि 2.0 डिग्री सेल्सियस की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापवृद्धि को सीमित रखने से जलवायु परिवर्तन के कई प्रभावों को टाला जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, 2.0 डिग्री सेल्सियस की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापवृद्धि को सीमित रखने से वर्ष 2100 तक समुद्री जल स्तर 10 सेंटीमीटर की वृद्धि होगी। इसी तरह गर्मियों में समुद्री बर्फ मुक्त आर्कटिक सागर की परिघटना 100 वर्षों में एक बार घटित होगी, बजाय एक दशक में एक बार के, यदि 2.0 डिग्री सेल्सियस की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापवृद्धि को सीमित रखा जाता है। 1.5 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापवृद्धि होने पर 70 से 90 प्रतिशत प्रवाल भित्तियां नष्ट होंगी वहीं 2.0 डिग्री तापवृद्धि की दशा में लगभग पूरी प्रवाल भित्तियां (99 प्रतिशत) नष्ट हो जाएंगी।
आईपीसीसी के अनुसार उष्णता में तनिक वृद्धि भी मायने रखती है, इसलिए कि 1.5 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की तापवृद्धि दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सकती है जिससे पलटना असंभव सिद्ध होगा जैसे कि कुछ पारितंत्रों का नष्ट होना।
इस रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए दो पद्धतियों का उल्लेख किया गया है। एक तो यह कि कई तरह के प्रयासों के द्वारा तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित रखा जाए। इसके लिए भूमि, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन एवं शहरों में त्वरित व अत्यधिक प्रभावी परिवर्तन लाने की जरूरत होगी। वैश्विक विशुद्ध मानव जनित कार्बन डाई ऑक्साइड उत्जर्सन को वर्ष 2030 तक 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत की कमी करनी होगी जिससे वर्ष 2050 तक विशुद्ध शून्य स्तर तक पहुंचा जा सके। इसका मतलब यह होगा कि शेष बचे उत्सर्जन को वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड को हटाकर संतुलित करना होगा। दूसरी यह पद्धति यह होगी कि वैश्विक तापवृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने दिया जाए। परंतु इसके लिए उन तकनीकों पर अधिक निर्भर रहना होगा जो वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन को हटाए जिससे कि वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके।