डॉ- नर्मदेश्वर प्रसाद
कार्यकारी संपादक,
निदेशक
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट
संपादकीय
प्रिय पाठकों,
भारत सहित विश्व सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है। वैसे लक्ष्य तो 17 रखे गये हैं परंतु इनमें गरीबी व भूखमरी समाप्ति, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व लैंगिक समानता की प्राप्ति जैसे लक्ष्यों को अधिक महत्व प्राप्त होता है, जो तर्कसंगत भी है। परंतु इस क्रम में हम लक्ष्य संख्या 13 (जलवायु कार्रवाई), लक्ष्य संख्या 14 (जल के नीचे जीवन) व लक्ष्य संख्या 15 (जमीन पर जीवन) को अधिक प्रमुखता नहीं देते। इन लक्ष्यों की प्राप्ति को प्रकाशनों यानी पुस्तकों व जर्नल में अधिक प्राथमिकता प्राप्त होती है परंतु जमीनी स्तर पर इन लक्ष्यों के प्रतिकूल क्रियान्वयन नीतियां दिखती हैं। खासकर, हाल में संरक्षण की उपेक्षा करते हुये भारत में कतिपय विकास परियोजनाओं को जिस तरह मंजूरी दी गईं हैं, उनसे तो यही स्पष्ट होता है। सितंबर 2020 में राज्यसभा में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय ने सूचित किया था कि 2015-16 से 2019-20 के बीच प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के सभी 47 सदस्यों की पूर्ण उपस्थिति में एक भी बैठक नहीं हो पायी परंतु इसकी स्थायी कमेटी आलोच्य अवधि में 23 बार बैठी और इन बैठकों में कुल 680 परियोजनाओं को ‘वन्यजीव मंजूरी’ प्रदान की गईं। ये सभी परियोजनाएं वन्यजीव समृद्ध क्षेत्रें में मौजूद हैं। ये डेटा राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल तो पैदा करती ही हैं साथ ही यह भी दर्शाता है कि किस तरह जल्दबाजी में विकास परियोजनाओं को मंजूरी दी गई और पर्यावरण तथा जैव विविधता संरक्षण की उपेक्षा की गई। आश्चर्यजनक तो यह है कि राज्यसभा में इस पर सवाल उठाये जाने के बावजूद परियोजनाओं को मंजूरी देने में कोताही नहीं बरती जा रही है। इसका हालिया उदाहरण अति संरक्षित ग्रेट निकोबार में नीति आयोग समर्थित विकास परियोजनाओं को मंजूरी देने की है।
नीति आयोग की ग्रेट निकोबार के लिए ‘हॉलिस्टिक’ एवं ‘सतत्’ विजन के तहत दक्षिण की खाड़ी में एयरपोर्ट परिसर एवं ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह की योजनाएं बनाइंर् गइंर् हैं। इन परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी देने के लिए राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी कमेटी ने जनवरी 2021 में संपूर्ण गैलेथिया खाड़ी वन्यजीव अभ्यारण्य को गैर-अधिसूचित कर दिया। यही नहीं पर्यावरण मंत्रलय की विशेषज्ञ कमेटी ने गैलेथिया-बे नेशनल पार्क को ‘शून्य विस्तार’ पारिस्थितिकी संवेदनशील जोन (ईसीजेड) घोषित कर दिया। उल्लेखनीय है कि जनवरी 2002 में भारतीय वन्यजीव बोर्ड ने सभी संरक्षित क्षेत्रें के आसपास के 10 किलोमीटर तक के क्षेत्र को ट्रांजिशन जोन के रूप में ईसीजेड का प्रस्ताव किया था ताकि अति संरक्षित क्षेत्र और मानव गतिविधि वाले क्षेत्र के बीच एक क्षेत्र सृजित की जा सके तो अति संरक्षित क्षेत्रें को सुरक्षा प्रदान कर सके। हालांकि बाद में कई आपत्तियां प्राप्त होने के पश्चात इसे संरक्षित क्षेत्र की अवस्थिति के आधार पर अलग-अलग मानदंड तय करने का निश्चय किया गया। इस तरह ईसीजेड क्षेत्र शून्य से 10 किलोमीटर तक हो सकता है। शून्य ईसीजेड का मतलब है शून्य ट्रांजिशन जोन। इसी का फायदा उठाकर विकास परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए ईसीजेड को शून्य विस्तारित रखा जा रहा है। ग्रेट निकोबार में गैलेथिया बे अभ्यारण्य के पास ‘शून्य विस्तार’ ईसीजेड अधिसूचना भी विकास परियोजनाओं की मंजूरी के आलोक में देखा जाना चाहिये। वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि गैलेथिया खाड़ी की अवस्थिति सामरिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। यह भारतीय मुख्य भूमि की तुलना में म्यांमार एवं सुमात्र के करीब है और कन्याकुमारी से भी दक्षिण में है। परंतु यह भी सही है कि यह क्षेत्र जैव विविधता के दृष्टिकोण से काफी समृद्ध है और कई दुर्लभ वन्यजीवों का आश्रय व पर्यावास भी है। ग्रेट निकोबार एक यूनेस्को बायोस्फीयर रिजर्व भी है। यूनेस्को के मुताबिक यह पार्क केकड़ा खाने वाले मकाक, निकोबार ट्री श्रू (कीट खाने वाला स्तनधारी), डुगोंग, निकोबार मेगापोड, सर्पेंट ईगल, खारा जल मगरमच्छ, समुद्री कछुआ एवं जालीदार पाइथन जैसे संकटापन्न प्रजातियों को आश्रय प्रदान करता है। ऐसे में विकास परियोजनाओं की मंजूरी से इन पर और खतरा उत्पन्न हो सकता है।
वैसे ग्रेट निकोबार अकेला उदाहरण नहीं है, जैसा कि ऊपर के डेटा से स्पष्ट होता है। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, असम, केरल जैसे राज्यों में नेशनल पार्क जैसे संरक्षित क्षेत्रें में आधारिक संरचनाओं के निर्माण के लिए तमाम पर्यावरणीय कानूनों एवं अधिसूचनाओं की अनदेखी की जा रही है। यहां तक कि कई मामलों में तो ‘जन सुनवाई’ की प्रक्रिया भी पूरी नहीं की जा रही है जो जरूरी है। यह खतरनाक स्थिति है। हमें विकास चाहिये परंतु पर्यावरण के विनाश के नाम पर नहीं।
डॉ- नर्मदेश्वर प्रसाद
कार्यकारी संपादक