डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

बंगलुरू में नववर्ष (2020) के आरंभ में 107वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के साथ ही आायेजित बाल विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए भारत के महान वैज्ञानिक व भारत रत्न प्रोफेसर चिंतामणी नागेस रामचंद्र राव ने कहा कि देश में विज्ञान को उतनी महत्ता नहीं मिल रही है जितनी मिलनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जब तक भारत विज्ञान में महान शक्ति नहीं बनता तब तक विश्व में इसका महान शक्ति बनना मुश्किल है। प्रोफेसर राव की चिंता स्वाभाविक है। हालांकि इससे एक दिन पहले ही विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा किए गए विज्ञान और इंजीनियरिंग प्रकाशनों (पीअर रिव्यूअड पब्लिकेशन) के संदर्भ में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर पहुंच गया है और इस मामले में 4 प्रतिशत की वैश्विक औसत वृद्धि के वनिस्पत भारत में 10 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है। प्रधानमंत्री का इशारा शोध पत्र प्रकाशनों की संख्या से था जो निश्चित रूप से एक उपलब्धि कही जा सकती है। यूएस नेशनल साइंस बोर्ड के वर्ष 2016 के डेटा के मुताबिक 2016 में भारत में विज्ञान एवं इंजीनियरिंग पर कुल 1,10,320 आलेख प्रकाशित हुए, वहीं चीन में कुल 426,165 आलेख प्रकाशित हुए। संख्या के मामले में भी देखें तो चीन हमसे काफी आगे हैं। परंतु देखा जाय तो संख्या से अधिक मायने रखता है प्रकाशन की गुणवत्ता। प्रो. राव ने इस ओर इशारा भी किया कि ‘भारत में शोध की गुणवत्ता व संख्या उतनी अच्छी नहीं है जितनी होनी चाहिए।’ प्रो. राव की चिंता की पुष्टि कई तथ्यों से होती है। शिमागो जर्नल रैंकिंग में टॉप 100 जर्नल में भारत का एक भी जर्नल शामिल नहीं है। टॉप 50 जर्नल में महज कुछ छोड़कर बाकी सभी या तो यूके की हैं या यूएस की हैं। ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2019 में भी भारत 52वें स्थान पर है। हालांकि विगत वर्ष के मुकाबले भारत की रैंकिंग में सुधर हुआ है परंतु 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के सपने को देखते हुए इनोवेशन में विश्व में 52वां स्थान, विरोधाभासी तो प्रतीत होता ही है।

भारत में विज्ञान की स्थिति चिंताजनक होने के पीछे के कई कारण हैं जिनमें शोध एवं विकास पर कम व्यय, मीडिया में अन्य विषयों के अलावा विज्ञान को कम महत्ता देना, स्कूली स्तर पर ही विज्ञान चिंतन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति का नहीं होना इत्यादि। भारत में शोध एवं विकास पर व्यय की बात करें तो यह जीडीपी का महज 0.7 प्रतिशत है। दक्षिण कोरिया और यहां तक कि इजरायल भी अपनी जीडीपी का 4 प्रतिशत से अधिक व्यय शोध एवं विकास पर करता है। परंतु इसके लिए केवल सरकार को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। भारत में शोध एवं विकास पर व्यय केवल सरकारी जिम्मेदारी मानी जाती है। निजी क्षेत्रक इसमें रूचि नहीं दिखाते। जबकि हकीकत यह है कि सरकारी व्यय से हुए शोध का सर्वाधिक लाभ निजी क्षेत्रक ही उठाते हैं। शोध एवं विकास पर व्यय के मामले में विश्व की पांच सर्वोच्च कंपनियों में भारत की एक भी कंपनी शामिल नहीं है। आमेजन, जो कि शोध एवं विकास पर व्यय के मामले में विश्व में प्रथम स्थान पर है, 22.6 अरब डॉलर का खर्च इस सेक्टर में करता है।

यहां ध्यान रहे कि आनेवाला समय बिल्कुल प्रौद्योगिकी की होने जा रही है और इसमें कृत्रिम बुद्धि अपनी प्रभावी भूमिका निभाने वाली है। यही कारण है कि औद्योगिक क्रांति 4.0 का आधर भी ऑटोमेशन ही है। ऐसे में वही देश या कंपनियां विश्व शक्ति बन सकती हैं या बनी रह सकती हैं जो विज्ञान शोध एवं विकास में अग्रणी हो। अमेरिका पहले से ही अग्रणी है, चीन ने इसकी महत्ता को पहले ही भांप लिया था इसलिए आज वह अमरिका को टक्कर दे रहा है, परंतु हम अभी भी इसमें काफी पिछड़े हुए हैं। आशा है कि सरकार और निजी क्षेत्र विज्ञान की महत्ता की उपेक्षा नहीं करेंगे। पर हां, इसमें अन्य हितधारकों को भी अपनी भूमिका समझनी होगी, जैसे कि मीडिया को।

भूगोल और आप’ का यह अंक कई विषयों पर केंद्रित है जिनमें कई शोधपरक आलेख भी हैं। आशा है यह अंक आपको पसंद आएगा। नववर्ष की शुभकामनाएं।