डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

भारत में लोकतंत्र के कई ऐसे घटक हैं जो इसे सही अर्थों में विश्व का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश बनाता है। इन्हीं घटकों में से एक है चुनाव जिसके द्वारा हमारे यहां सरकारें बनती हैं व गिरती हैं। हमारे पड़ोसी देशों में भी चुनाव होते हैं परंतु शायद ही कभी ऐसा हो जब अंतरराष्ट्रीय जगत द्वारा उनके चुनावों पर आशंका व्यक्त नहीं की हो। परंतु इन सबके बीच यदि भारत के चुनाव पर अभी विश्वसनीयता बनी हुई है तो इसका सबसे बड़ा कारण है समय के साथ उसके ढ़ांचे व स्वरूप में परिवर्तन जो मतैक्य पर आधारित है। चुनाव सुधार भी इसी परिवर्तन का द्योतक है। भारत में प्रथम आम चुनाव के पश्चात ही इसमें अपेक्षित सुधार के प्रयास किए जाते रहे हैं जो आज तक जारी है। हालांकि इन सुधारों के बावजूद विगत दशकों में कई ऐसी प्रवृत्तियां देखने को मिली हैं जिसके कारण भारत में राजनीतिक व्यवस्था पर भारतीयों का थोड़ा विश्वास कम जरूर हुआ है। इनमें दो सबसे बड़े कारण हैं राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रवेश व चुनाव में धन का बेतहाशा इस्तेमाल। भारत में राजनीति का अपराधीकरण किस कदर हो चुका है, उसका अंदाजा भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामा से होता है। इसमें सरकार ने माना कि देश में 36 प्रतिशत (1765) सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ 3045 आपराधिक मामले दर्ज हैं। दुखद तथ्य यह है कि यह जानने के बावजूद सरकार के स्तर पर ही ऐसे कानून पारित किए जाते हैं जो राजनेताओं को उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि के बावजूद उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करे। उदाहरण के तौर पर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में दोषी करार दिए गए व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोकने का प्रावधान था जिसमें संशोधन के द्वारा धारा 8(4) जोड़कर दोषी लोगों को संरक्षण प्रदान कर दिया गया। 10 जुलाई, 2013 को जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को निरस्त कर दिया तब कुछ लोगों को चुनाव लड़ने की छूट देने के लिए वर्ष 2013 में आनन-फानन में एक अध्यादेश लाया गया। हालांकि यह अध्यादेश नाटकीय स्थिति के पश्चात वापस ले लिया गया परंतु इससे स्पष्ट हो गया था कि चुनाव में आपराधिक या भ्रष्ट पृष्ठभूमि के लोगों को प्रवेश रोकने के बारे में राजनीतिक दल या सरकार गंभीर नहीं है।

कुछ ऐसा ही मामला चुनाव में धन के इस्तेमाल की है। चुनाव आयोग के अनुसार वर्ष 2014 के चुनाव में 3426 करोड़ रुपए खर्च हुए जो कि वर्ष 2009 के चुनाव की तुलना में 131 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 1952 के आम चुनाव की तुलना में 2009 के आम चुनाव में खर्च में 20 गुणा की बढ़ोतरी हुयी। चुनाव आयोग के अनुसार वर्ष 1952 के चुनाव में प्रति मतदाता चुनाव व्यय 60 पैसे थे जो वर्ष 2009 के चुनाव में बढ़कर 12 रुपए हो गए। चिंताजनक बात यह है कि चुनाव व्यय में आशातीत बढ़ोतरी के बावजूद राजनीतिक दलों को मिलने वाले फंड को छिपाने के प्रयास किए जाते हैं, वह भी संस्थागत तौर पर। जैसे कि 14 मार्च, 2018 को लोकसभा ने वित्तीय विधेयक पारित किया जिसमें वित्तीय योगदान (विनियम) एक्ट, 2010 में संशोधन किया गया जिसके तहत राजनीतिक दलों को मिले समुद्रपारीय दान की जांच से उन्मुक्ति प्रदान कर दी गई।

चुनाव सुधार से संबंधित कई अन्य मामले भी हैं जिन पर विचार किए जाने की जरूरत है। भूगोल और आप के इस अंक चुनाव सुधार पर विशेष सामग्री प्रस्तुत की गई हैं जो इस विषय व इससे जुड़े मुद्दे को समझने में मदद मिलेगी। इसके अलावा पर्यावरण व विकास से जुड़े कई शोधपरक आलेख भी इसमें शामिल किए गए हैं जो सामान्य अध्ययन के लिए अति उपयोगी हैं।