डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद
कार्यकारी संपादक,
निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट
भारत में पंचायती राज संस्था को संवैधानिक दर्जा मिले 25 वर्ष हो चुके हैं। इतने वर्षों में इस लोकतांत्रिक व विकेंद्रीकृत संस्था ने सफल लंबा सफर तय किया है। सफल इसलिए कि जिस पंचायत चुनाव को कभी राष्ट्रीय स्तर पर तब्बज्जो नहीं दी जाती, जिसे मीडिया कभी खबर नहीं बन पाती थी, जिसके बारे में शीर्ष दलों के शीर्ष राजनेता कभी ध्यान तक नहीं देते थे, आज वही पंचायत चुनाव व उसका परिणाम प्राइम टाइम मीडिया की न केवल बहस का मुद्दा होता है वरन् सोशल मीडिया पर वह ट्रेंड हो रहा होता है और बड़े-बड़े राष्ट्रीय राजनेताओं की टिप्पणियां भी शामिल होती हैं। स्पष्ट है कि राजनीतिक शासन के जिस विकेंद्रीकरण के उद्देश्य से संविधान संशोधन लाया गया था वह बहुत हद तक पूरा होता दिखाई देता है। इसके लिए जमीनी स्तर पर कई कारकों का महत्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है। महिलाओं एवं अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों का बढ़ता प्रतिनिधित्व ने, न केवल समाज के इस अपवंचित वर्ग के सशक्तीकरण में योगदान दिया है वरन् विकेंद्रीकृत शासन में उनकी भागीदारी बढ़ाकर शासन को और समावेशी भी बनाया है।
लोकसभा में सरकार की ओर से पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार देश के कुल निर्वाचित 29,17,336 पंचायत प्रतिनिधियों में से 13,41,773 यानी 46 प्रतिशत महिलाएं थीं (लोकसभा, 2015)। हाल के शोधों से यह उभरकर सामने आया है कि स्थानीय स्व-शासन में महिलाओं के प्रतिनिधित्व होने से महिलाओं को सामने आने व अपराधों को रिपोर्ट करने में प्रोत्साहन मिलता है। इसी प्रकार अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों को भी उनकी आबादी के अनुपात में पंचायतों में प्रतिनिधित्व दिया गया है। लगभग एक लाख निर्वाचित पंच एससी/एसटी वर्ग के हैं। एक अध्ययन के अनुसार अनुसूचित जाति के सरपंच अपना मुखिया अपनी बस्ती के विकास पर अधिक बल देते हैं। यह एक उत्साहजनक परिणाम है क्योंकि ये बस्तियां एवं इनमें रहने वाले अपवंचित वर्ग के लोग बुनियादी सुविधाओं के मामले में हमेशा से उपेक्षा के शिकार रहे हैं।
पंचायती राज को सफल बनाने में क्रमिक वित्त आयोगों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रत्येक आयोग ने अपने पूर्व के आयोग की तुलना में फंड बढ़ाकर तथा जवाबदेही डालकर पंचायती राज संस्थानों के संचालन को जारी रखने में मदद किया है। 14वें वित्त आयोग ने फंड आवंटित करते समय अनुदान को बेसिक व परफॉर्मेंस में बांटकर एक प्रकार से पंचायती राज संस्थाओं को प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया और इस रूप में इसे सशक्त किया गया।
आज पंचायती राज संस्थाएं इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण व सशक्त हो गईं हैं क्योंकि अधिकांश योजनाओं का क्रियान्वयन भी इन्हीं के माध्यम से हो रहा है।
हालांकि उपर्युक्त सफलताओं के बावजूद पंचायती राज संस्था को पूर्णतः सफल नहीं कहा जा सकता। अभी भी कई खामियां उसमें मौजूद है। मसलन््, पंचायतों के लिए 11वीं अनुसूची में 29 विषयों का उल्लेख जरूर है परंतु इसके क्रियान्वयन की कोई पद्धति नहीं है और ये राज्य सूची के विषय हैं। ऐसे में राज्य स्तर पर इनसे संबंधित नीतियां व योजनाएं बनाई जाती हैं। जिन बुनियादी सुविधाओं की जिम्मेदारी पंचायतों को दी गईं हैं उनसे संबंधित कार्यक्रम भी राज्य सरकार द्वारा ही बनाई जाती हैं। अर्थात 73वें संशोधन से भले ही पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिली हो परंतु अधिकांश मामलों में अभी भी स्वायतता उन्हें नहीं है। उनकी निर्भरता राज्य सरकार एवं उसकी विभिन्न एजेंसियों पर है जिसकी दखलंदाजी कम नहीं होती। देश के अधिकांश पंचायत अभी भी बाह्य अनुदान पर ही निर्भर हैं। खुद के राजस्व का स्रोत अभी भी सृजित नहीं हो पा रहे हैं। 14वें वित्त आयोग ने इस ओर इशारा भी किया है। यही कारण है कि पंचायतों को दिए जाने वाले अनुदान में जिस 10 प्रतिशत को परफॉर्मेंस के आधार पर दिए जाने का प्रस्ताव रखा गया है उसके लिए एक प्रमुख शर्त खुद के स्रोतों से राजस्व सृजन है। यह उनकी जवाबदेही व बेहतर प्रदर्शन सुनिश्चित करने के लिए है।
उपर्युक्त समीक्षात्मक अवलोकन से स्पष्ट है कि पंचायती राज ने सशक्तीकरण में, विशेष रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसके बावजूद अभी भी इसे लंबी दूरी तय करनी है। स्थानीय लोग अपनी समस्याओं के बारे में उन लोगों से बेहतर जानते हैं जो देश या राज्य की राजधानियों में बैठे हैं। ऐसे में उन समस्याओं के समाधान की, जिनका संबंध पंचायतों के 29 विषयों से है, रणनीति व क्रियान्वयन वास्तविक रूप में पंचायतों को सौपने की जरूरत है। तभी हम सशक्त विकेंद्रीकरण व ग्रामीण स्वराज की परिकल्पना को पूरी होते देख सकते हैं।