डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

प्रिय पाठकों,

विगत 10 महीनों की निराशा व हताशा से पार पाते हुये हम नई आशाओं एवं प्रत्याशाओं के साथ नये वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि नए वर्ष में नयापन की आशा करनी चाहिए। परंतु विडंबना यही है कि माननीय प्रधानमंत्री द्वारा 16 जनवरी, 2021 को ‘विश्व का सबसे बड़ा टीकाकरण’ कार्यक्रम’ के शुभारंभ के साथ ही नये वर्ष का स्वागत के बजाय फिर से 2019 वाली स्थिति में लौटने की आकांक्षा हम कर रहे हैं। वर्ष 2021 में वर्ष 2019 की स्थिति की चाह करना वैसे आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होना चाहिए। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब पुराने की ओर लौटने को भविष्य समझा गया। 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच यूरोप का पुनर्जागरण हो या 18वीं एवं 19वीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण हो, इन सब में नूतन बुराइयों के उन्मूलन के लिए पुरातन कला-संस्कृति, साहित्य इत्यादि से प्रेरणा प्राप्त करने की कोशिश की गई। स्वामी दयानंद सरस्वती का ‘वेदों की ओर लौटो’ की शिक्षा भी भेदभाव विहीन वैदिक समाज से प्रेरणा लेने का आह्वान था। यहां तक कि आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पुरानी स्थिति में लौटना ही मानव हितकारी समझा जा रहा है। जलवायु परिवर्तन भी एक ऐसा ही क्षेत्र है। आज हम जब जलवायु परिवर्तन को टालने के बात करते हैं तो पूर्व औद्योगिकी क्रांति युग की स्थिति से तुलना करते हुये पूर्व स्थिति की बहाली का वैज्ञानिक तर्क देते हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे की हम कामना क्यों करते हैं। ‘दो कदम’, जिसे तथाकथित रूप से प्रगति की संज्ञा देते हैं मानव विकास का प्रतीक होना चाहिए और इससे तो मानव हित का ही साधन होता है, फिर दुख क्यों? तो इसका जवाब है कि मानव अपनी प्रगति के क्रम में अन्य की दुर्गति से भी परहेज नहीं करता। वह यह भूल जाता है कि प्रगति सतत व समावेशी होनी चाहिए। यदि हम अपनी प्रगति की नींव किसी की दुर्गती पर डालेंगे तो उसका दुष्परिणाम स्वाभाविक है। वह भले ही जलवायु परिवर्तन के रूप में आये, बाढ़ के रूप में आये, चक्रवात के रूप में आये, भूकंप के रूप में आये या फिर महामारी के रूप में आये।  

जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य कामायानी में प्रलय के पश्चात श्रद्धा से मनु पूछते हैं कि आखिर इस प्रलय का कारण क्या है और विध्वंस लाकर मानव सुख को छिना क्यों गया। तब श्रद्धा कहती हैः

‘जिसे तुम समझते हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल

ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।

विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,

यही दुख सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान।’

मतलब यह कि जो विध्वंस हुआ है और इससे जो दुख उत्पन्न हुआ है वह भी ईश्वरीय देन है और इस प्रकृति की जीवंतता के मूल में भी विध्वंस कारण है। जब पृथ्वी पर विषमता या यूं कहें की असमानता की खाई अति अधिक बढ़ जाती है तो विध्वंस व प्रलय लाकर समानता लाने का प्रयास किया जाता है। उल्लेखनीय है कि हम सबने महाभारत दूरदर्शन पर जरूर देखा होगा। इसकी शुरुआत भी ‘यदा-यदा ही

धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत------’ श्लोक से होती है और इसमें भी अधर्म का नाश करने के लिए ईश्वर के अवतरित होने की बात कही जाती है।

आधुनिक व वैज्ञानिक संदर्भ में इन सब दृष्टांतों का तात्पर्य यही है कि यदि हम प्राकृतिक नियमों का अनुपालन नहीं करेंगे तो प्रकृति न्याय करना जानती है। कोेविड-19 महामारी को भी प्राकृतिक न्याय के रूप में मानव जगत को स्वीकार करना चाहिए। जैव वैविध्य व बाहुल्य पृथ्वी पर सबकी सीमा निर्धारित की गई है। यदि कोई इस सीमा का अतिक्रमण करता है तो बर्दास्त की भी एक सीमा होती है। जब अतिक्रमण बर्दास्त की पराकाष्ठा को भी लांघ जाता है तो हमें कोविड-19 जैसी महामारी का प्रकोप झेलना पड़ता है। मानव ने अपनी सीमा का अतिक्रमण कर वन्यजीवों के पर्यावास को छिनने का प्रयास किया है। इसलिए कोविड-19 जैसी जूनॉटिक महामारी के लिए दोषी वन्यजीव नहीं बल्कि ‘लोभी’ मानव है। अंतः हमें प्रकृति के नियमों का अनुपालन करते हुये अपनी सीमा में रहने का प्रयास करना चाहिए। मानव इतिहास एवं भूवैज्ञानिक युग की सीख हमारे समक्ष है।

नव वर्ष की शुभकामानएं।