डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

अक्टूबर के अंतिम सप्ताह तथा नवंबर 2019 के प्रथम सप्ताह में देश की राजधानी दिल्ली गैस चैम्बर में तब्दील हो गयी। वायु इतनी प्रदूषित हो गई कि 2 नवंबर, 2019 को ‘स्वास्थ्य आपदा’ तक घोषित करना पड़ा। 3 नवंबर को पीएम 2.5 का 24 घंटों का औसत 625 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर पहुंच गया जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के 24 घंटों के सुरक्षित स्तर 25 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर का 24 गुणा अधिक है। इससे स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। स्कूलों को बंद करना पड़ा, लोगों को घरों के भीतर अधिक समय रहने के आदेश दिए गए। यह अलग बात है कि रोजगार के लिए घर से बाहर निकलना करोड़ों लोगों की मजबूरी है। यह स्थिति तब है जब यूरो-टप् वाहन उत्सर्जन मानक का पालन करने वाला दिल्ली अप्रैल 2018 में देश का प्रथम शहर बना। इसे अपनाये हुए एक साल से अधिक हो गया है।  
दिल्ली में प्रदूषण की बदतर स्थिति को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। यदि सरकारें इस प्रदूषण को दूर करने के प्रति गंभीर होती तो सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। न्यालालय ने स्पष्ट आदेश दिया कि यदि पंजाब व हरियाणा में पराली जलायी जाती है तो इसके लिए राज्य के मुख्य सचिव से लेकर ग्राम प्रधान तक जिम्मेदार होंगे। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘लोग मर रहे हैं और एक सभ्य देश में ऐसा नहीं होना चाहिए।’
दिल्ली में वायु प्रदूषण के कई कारण हैं। हालांकि कारणों की हिस्सेदारी के स्तर पर विभिन्न अध्ययनों में आम राय नहीं है। सर्वाधिक रेखांकित व विज्ञापित कारण पंजाब व हरियाणा में पराली जलाने को माना जा रहा है जो सर्दियों में कापफी बढ़ जाती है। उसी का धुंआ दिल्ली का रूख कर लेती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पंजाब व हरियाणा के किसानों द्वारा पराली जलाये जाने की घटनाओं से भी दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ता है। परंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मैंडेटेड पर्यावरण प्रदूषण ;रोक एवं नियंत्राणद्ध प्राध्किरण के अनुसार दिल्ली एवं राष्ट्रीय राजधनी क्षेत्रा में वायु प्रदूषण के लिए स्थानीय स्रोत मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। यह अलग बात है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री विज्ञापनों के माध्यम से दोहराते रहे हैं कि ‘25 प्रतिशत प्रद्रूषण हुआ कम पर पफसलों का ध्ुआं दिल्ली आ गया।’ प्राधिकरण के एक सदस्य के मुताबिक बायोमास को जलाया जाना दिल्ली में 10 प्रतिशत से कम प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है जिसका मतलब है कि 90 प्रतिशत प्रदूषण का स्रोत स्थानिक है। हालांकि इस तथ्य पर दो राय हो सकती हैं परंतु इतना तो तय है कि दिल्ली में प्रदूषण के लिए स्थानीय स्रोत एक बड़ा कारण है। लगभग 90 लाख वाहनों का उत्सर्जन, चिमनी, निर्माण कार्यों से निकले ध्ूल, अपशिष्टों को जलाना इत्यादि दिल्ली प्रदूषण के प्रमुख स्थानिक स्रेत हैं। 
जैसा कि उफपर कहा गया कि वाहनों से उत्सर्जन भी दिल्ली में वायु प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। हालांकि प्रदूषण में इसका योगदान 18 प्रतिशत से 39 प्रतिशत तक बतायी जाती है, और इस पर आम राय नहीं है। परंतु उपर्युक्त दायरा देखने से स्पष्ट हो जाता है कि दिल्ली में जहरीली वायु के लिए यह बहुत हद तक जिम्मेदार है। इससे निपटने के लिए दिल्ली सरकार ने 4-15 नवंबर 2019 तक ऑड-इवन भी लागू की जिसके कुछ बेहतर परिणाम भी देखने को मिले। हालांकि इस योजना से कुछ राहत जरूर मिलती है परंतु यह योजना भी नीतिगत व क्रियान्वयन के स्तर पर कई खमियों से युक्त है। एक तो यह कि यह सभी प्रकार के वाहनों पर लागू नहीं होती। दोपहिया वाहनों को इससे छूट प्राप्त हो जाती है जो कि प्रदूषण का एक बड़ा कारण है। प्रदूषण का उच्च स्तर होने के बावजूद 11 व 12 नवंबर को इस योजना से छूट प्रदान कर दी गई क्योंकि गुरु नानक देवजी का प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। प्रदूषण के जिस स्तर पर लोगों को घरों में रहने की हिदायत दी गई हो, उसमें भला लोग किस उत्साह से बाहर निकलकर पर्व मना सकते हैं। स्पष्ट है कि नीयत प्रदूषण कम करने की कम, राजनीति अध्कि है। एक अन्य स्तर पर भी क्रियान्वयन में कमी स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है, वह है वाहनों से होने वाले उत्सर्जन की निगरानी। कहने को तो दिल्ली में यूरो-टप् वाहन उत्सर्जन मानक लागू है और नया मोटर वाहन एक्ट लागू होने के पश्चात वाहन चालकों के लिए पीयूसी सर्टिफिकेट लेना भी जरूरी है परंतु कई वाहन मालिकों ने शिकायत की है कि वाहनों की जांच करने वाले केंद्र उचित संख्या में नहीं है। कहीं-कहीं तो अधिक प्रदूषण वाले वाहन चालक भी मिली-भगत से बिना सर्टिपिफकेट के काम चला लेते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रदूषण जांच केंद्रों पर कोई मॉनिटरिंग नहीं है। वाहन मालिकों को जो पीयूसी सर्टिपिफकेट प्राप्त होता है वह कितना मानक है या जारी करने के लिए जिन तंत्रों व उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है, उसका स्तर कैसा है, उसकी गुणवत्ता कैसी है, सारे मानकों पर वह खड़ा उतरता है या नहीं, इसकी नियमित मॉनिटरिंग होती भी है या नहीं, अभी भी स्पष्ट नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो, उपर्युक्त व उपयुक्त मॉनीटरिंग के अभाव में पूयीसी सर्टिफिकेट महज एक औपचारिकता बन कर रह गयी है! 
हाल के दिल्ली के ‘गंभीर’ वायु प्रदूषण से यही सबक मिलती है कि इससे निपटने के लिए दीर्घकालिक रणनीति अपनाए जाने की आवश्यकता है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने आदेश में कहा है। एक या दो सप्ताह का ऑड-इवन तात्कालिक राहत दिला सकती है परंतु यह स्थायी समाधन नहीं है। हमें चीन की राजधनी बीजिंग से सबक लेने की जरूरत है। बीजिंग में सभी प्रकार के कृषि अपशिष्टों को जलाये जाने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया। पर भारत में ऐसा आज तक संभव नहीं हो पाया है। दरअसल किसानों का कोपभाजन कोई भी रजनीतिक दल नहीं होना चाहता। यह एक बड़ा वोट बैंक है। परंतु इस वोट बैंक के कारण कब तक किसानों की मनमानी के लिए दिल्ली की आम जनता, खासकर निर्दोष बच्चे अपने स्वास्थ्य की बलि चढ़ाते रहेंगे? अब समय आ गया है कि वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर पराली जलाने वाले किसानों से सख्ती से निपटा जाये और दिल्ली के लोगों को ‘स्वच्छ वायु का अधिकार’ प्रदान की जाए।
ध्न्यवाद!