डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

हम ऐसे युग में जी रहे हैं जिसमें ‘चरम प्राकृतिक परिघटनाएं’ आम हो गईं हैं। अचानक बाढ़ आना, जरूरत से कहीं अधिक गहन और दीर्घावधिक वर्षा या न के बराबर वर्षा, अत्यधिक गर्मी व तूफान इसके विभिन्न रूप हैं। वैज्ञानिक एवं पर्यावरणीय अवधारणा में इसे ‘जलवायु परिवर्तन’ का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम कहा जाता है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों के माध्यम से इसे मानव जनित भी कहा है। हाल के वर्षों में चरम परिघटनाओं की आवृत्ति में बढ़ोतरी हुयी है। ऐसे में हमारे समक्ष चुनौती भविष्य में परिवर्तन को संभव बनाने वाले कारकों पर नियंत्राण के साथ चरम घटनाओं से निपटने के लिए खुद को तैयार करने की है। आपदा प्रबंध्न इसी का हिस्सा है और भारत में आपदाओं से निपटने के लिए आपदा प्रबंध्न एक्ट 2005 व तत्जनित राष्ट्रीय आपदा प्रबंध्न प्राध्किरण भी है। वर्ष 2005 के एक्ट का मतलब है कि इसे अध्नियमित हुए 14 वर्ष हो चुके हैं। ऐसे में आशा यही की जाती है कि चरम आपदाआें की दशा में हमें चरम कष्ट का सामना नहीं करना पड़ेगा। परंतु हाल में मानसून मौसम ;जून-सितंबरद्ध के उपरांत जिस तरह से वर्षा हुयी और लोगों को जिस कदर संकट का सामना करना पड़ा, वह आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारियों की पोल खोल देती है। पटना का उदाहरण प्रत्यक्ष है। गंगा नदी के किनारे बसे पटनावासियां को कई दिनों की मूसलाधर
वर्षा ने शहर की गलियों को ही गंगा का चैनल बना दिया था जिसमें बुनियादी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ा। अस्पताल का इमरजेंसी वार्ड, लोगों का इलाज करने के बदले खुद आईसीयू में चला गया था। सुशासन का प्रशासन लाचार अवस्था में थी। यह सही है कि इतनी भारी वर्षा किसी भी जगह बाढ़ का कारण बन सकती है परंतु इसे केवल ‘प्रकृति का कोप’ कहकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते। आपदा की तैयारी वर्षों से होती रही है और मॉक ड्रिल भी होते रहे हैं परंतु ये सभी अक्षम सि( हुये। पटना ही नहीं देश की राजधनी दिल्ली में भी भारी वर्षा के पश्चात कई तरह की अंतर्निहित खामियां उभरकर सामने आ गईं। बडे़-बड़े भवनों के बेसमेंट में कई दिनों तक पानी भर जाने के कारण लिफ्रट व्यवस्था बाध्ति हुयी। इस वजह से मेट्रो की एलीवेटर सेवा भी प्रभावित हुयी। स्पष्ट है कि अभी भी कथित तैयारियों के बावजूद लोगों के लिए आपदा, विपदा ही साबित हो रही है।
आपदा प्रबंध्न के साथ ही एक और मुद्दा जो उभरकर सामने आया वह यह कि मानसून के सटीक पूर्वानुमान में हमारी असपफलता। हाल के वर्षों में मानसून पूर्वानुमान पर हमारे वैज्ञानिकों द्वारा कापफी शोध् किए गए हैं और इस क्रम में सीएपफएस मॉडल भी विकसित किया गया। ऐसे में आशा की जा रही थी कि आईएमडी के पूर्वानुमान के अनुरूप ही इस बार सामान्य वर्षा होगी। परंतु हुआ इसके विपरीत और इसने विगत 25 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया और मॉनसून की वापसी भी कापफी देर से हो रही है। मानसून पूर्वानुमान पर हमारी बहुत सी रणनीतियां निर्भर हैंऋ आपदा प्रबंध्न से लेकर कृषि तक। पूर्वानुमान में मामूली अंतर से अध्कि पफर्क नहीं पड़ता परंतु 96» एवं 110» के बीच के अंतर से कुछ ज्यादा ही पफर्क पड़ जाता है, और इसका असर देखने को भी मिला। ऐसे में आशा की जाती है मौसम वैज्ञानिक हुयी चूक का गहन विश्लेषण करेंगे व भविष्य में इसे सुधरने का प्रयत्न करेंगे। 
‘भूगोल और आप’ का यह अंक कई विशिष्टताओं से युक्त है, आपको पसंद आएगा।
ध्न्यवाद!